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ग़ुलाम / नेहा नरुका

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पहले वे ग़ुलाम थे
फिर वे ग़ुलाम नहीं रहे

राजा ने घोषणा की अब ग़ुलाम और आज़ाद के साथ बराबरी बरती जाएगी

राज्य की सबसे ऊँची दीवार पर रोटियाँ टाँग दी गईं
और कहा जिसे भूख हो दौड़कर ले ले
आज़ाद दौड़े और रोटियाँ खा लीं
ग़ुलाम भी पहली बार दौड़े पर रोटियों तक न पहुँच पाए

राज्य के वित्तमंत्री ने मुफ़्त कपड़ों की एक दुकान खोली
दुकान पर एक बोर्ड लगवाया :
‘कोई नंगा न रहे, सभी कपड़े पहन लें’
आज़ाद आए और सबसे सुन्दर कपड़े छाँटकर पहन लिए
ग़ुलामों के भाग्य में फिर से वही बचे-कुचे ख़राब कपड़े आए

राज्य के सबसे बड़े व्यापारी ने मकान बनाकर सस्ती दरों पर बेचे
आज़ाद आए और सारे मकान ख़रीद लिए
ग़ुलाम आए और ख़ाली हाथ वापस लौट गए

राज्य में एक बैठक आयोजित की गई
उसमें ग़ुलामों की क्षमताओं पर सन्देह व्यक्त किया गया
निष्कर्ष निकाला गया कि मुफ़्त और सस्ते संसाधनों को बाँटने का कोई अर्थ नहीं,
राज्य के विकास के लिए संसाधनों को महँगा कर दिया जाए

ग़ुलामों ने हाय-हाय की
राज्य के सेनापति ने सबको उठाकर जेल में डाल दिया
ग़ुलाम जेल में पानी की दाल खाकर इंक़लाब की बातें करने लगे
जेल अधिकारी को बड़ी चिन्ता हुई
उसने राजा को पत्र लिख दिया :
‘महाराज, ग़ुलामी की प्रथा फिर से शुरू करें ।’

राजा ने जवाब में लिखा :
‘तीर कमान से निकल चुका है,
अब मुझे पूरा ध्यान, बस, गद्दी बचाने पर लगाना है ।’

राज्य के कवियों ने दरबार में जाकर विरुदावली गाई
सभी कवियों की रचनाओं के नायक आज़ाद थे
ग़ुलाम को किसी कवि ने नायक नहीं बनाया

ग़ुलाम को नायक मानने वाले कवि भी जेल में बन्द कर दिए गए थे
क्योंकि उन्होंने अपनी कविताओं में लिखा था :
‘ग़ुलाम को बराबरी के साथ थोड़े ज़्यादा दुलार की
थोड़ी ज़्यादा देखभाल की
थोड़े ज़्यादा प्यार की ज़रूरत है’

आज़ाद बुदबुदाए :
‘आरक्षण माँग रहे हैं साले !’

राज्य के विद्वानों ने कहा :
‘न भाषा, न शिल्प; ये कवि नहीं हो सकते,
ये कुण्ठा अभिव्यक्त करने वाले ग़ुलाम हैं, ख़ारिज करो इन्हें …’

ग़ुलामों ने जेल में एक सुर में नारे लगाए, गीत गाए, कविताएँ सुनाईं, बहसें कीं …
राज्य कुछ नहीं कर सका
क्योंकि वह जानता था
मौत से बदतर ज़िन्दगी जीने वाला ग़ुलाम मौत से नहीं डरता !