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तीन लड़कियाँ / नेहा नरुका

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वे तीन लड़कियाँ हैं
तीनों बुद्धिमान हैं, कलाकार हैं, खिलाड़ी हैं …
मगर बेटियाँ नहीं हैं
वे भार हैं, बोझ हैं, ब्याज हैं अपने माता-पिता पर
मगर बेटियाँ नहीं हैं

उनकी माँ अपना नाम तक भूल गई है
उसका नाम अब बस यही है —
‘तीन लड़कियों वाली माँ’
तीनों लड़कियाँ उसे कमतर महसूस करवाती हैं
उन माँओं के सामने जिनके लड़के हैं
और जिनकी छाती गर्व से फूल गई है

पहली पहले बच्चे की चाह में हो गई
दूसरी लड़के की चाह में हो गई
और तीसरी समय पर जाँच न हो पाई
इसलिए, बस, हो गई

तीनों में से एक भी ऐसी नहीं
जिसे खेत, खलिहान, अटरिया और
मकान दिया जा सके

माँ निराश होकर कहती है —
‘ये सब तो बेटे को दिया जाता है
और ये तीनों तो लड़कियाँ हैं ...’

सोचती हूँ, उन तीनों का बालमन
क्या सोचता होगा इस बारे में …
कि वे बेटियाँ नहीं, लड़कियाँ हैं, बस्स  !

उनकी माँ को बेटे का इन्तज़ार है
उन तीनों को भाई का इन्तज़ार है
घर और सम्पत्ति को
भविष्य के मालिक का इन्तज़ार है

कोई नहीं, जिसे बेटियों के
लड़कियों में बदलने की चिन्ता हो …