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सुनो सिद्धार्थ! / प्रतिभा सिंह

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सुनो सिद्धार्थ!
मैं भी हो सकती थी बुद्ध
लहरा सकती थी
विश्व में बौद्धिकता का परचम
समझा सकती थी आर्य सत्यों
और आष्टांगिक मार्गों का सच।
हो सकती थी जातक
रच सकती थी पिटक
बतला सकती थी गूढ़ रहस्यों को
प्रतीत्यसमुत्पाद के।
किन्तु मैं?
परित्यक्ता नारी
तुम्हारे कदमों की धूल को
माथे पर लगा ढोती रही
उन उत्तरदायित्वों के बोझ को
जो वास्तव में तुम्हारे थे।
दरअसल राहुल के बंधन ने
तुमको नहीं
मुझको बाँधा
तुम्हारे निर्जीव से बंधन में।
मैं भी पलायन कर सकती थी
तुम्हारे वृद्ध पिता को तड़पता हुआ छोड़कर
तुम्हारी माँ को सिसकता हुआ छोड़कर
मोह माया को गहरी निद्रा में सुला कर
किसी उरुबेला में जाकर।
 निरंजना के तट बैठ
सांसारिक चिंताओं से मुक्त होकर
ध्यान कर सकती थी।
किन्तु तब?
क्रुद्ध हो जाता जम्बुद्वीप
स्त्री के योगी होने से
विद्रोही हो जाते तुम भी
और रक्त रंजित कर देते आत्मा।
वह राहुल
जिसे अपने पिता के बुद्ध होने पर गर्व है
कह देता माँ को कुलटा, कुसंस्कारी
और ममत्वहंता।
मेरे माता-पिता का सिर धंस जाता पाताल में
लज्जा के मारे
और तुम्हारे माता-पिता कोसते मुझको
सात जन्मो तक।
इस लिए सिद्धार्थ तुम बुद्ध हो गए
और मैं
रह गई साधारण-सी यशोधरा बनकर॥