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तारा / प्रतिभा सिंह

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सुनो राम!
यह सच है
छलपूर्वक तुमने
मेरे पति को मारा है
अहो विधान देखो फिर भी
यह मरण पति को प्यारा है।
मैं सोच रही हूँ
क्षण-क्षण
खुद को कोस रही हूँ
समझ रही हूँ
मेरे वचनों का
किंचित कोई मूल्य नहीं
किन्तु मूक होकर सह जाए
अधम भी उसके तुल्य नहीं।
सुनो सत्य मैं कहती हूँ,
जो निर्बल को छिपकर मारे
रीति-नीति तजकर सारे
कैसे कह दूँ
वह है महान
रघुवंशी कैसा विधान?
तुम कहते हो धीर धरो
तारा!
सुग्रीव तुम्हारा है
मैंने उसको मार गिराया
अनुज जिसे ना प्यारा है।
किन्तु कहो मेरी पीड़ा पर
लेपन कर सकते हो क्या?
अंगद पिता विहीन हुआ है
रिक्त को भर सकते हो क्या?
हाँ सच है बालि अधम-पापी था
अनुज पत्नी पर कामातुर
पर सुग्रीव कहाँ कम था?
जो सत्ता हेतु हुआ व्याकुल।
यदि रूमा थी
कन्यासम
मैं भी तो माँसम ही थी
क्या पिता काल का ग्रास बने तो
माँ बिसराई जाए
या वह भी आश्रय के बदले
शैय्या पर लाई जाये।
कहो राम!
गलत यदि दोनों ही हैं तो
दण्ड एक ही क्यों भोगे।
दण्डित करो
मित्र को तुम भी
जब न्यायधीश हो
बनकर आये।
क्योंकि
इसके कर भी पहुँचे मुझतक
कामुकता से होकर तर।
तुम कहते हो यही उचित था
रक्षा हेतु तुम्हारे
और यही अंगद के हित में
विधि को कौन बिसारे।
राजा की पत्नी हूँ फिर भी
कुछ भी मेरे पास नहीं
शरणागत सुग्रीव की हूँ अब
था इसका आभास नहीं
क्या स्त्री देंह मात्र ही है
जो बांट-बांट कर भोगी जाए
रूमा, तारा बनकर वो
कामुकता से रौंदी जाए।
सुनो राम!
स्त्री अधिकारों का
कोई औचित्य नहीं क्या?
बड़ी, जटिल इच्छाओं का
विस्तार यहाँ संक्षिप्त नहीं क्या?
तुम्ही कहो,
यह मृत्यलोक का कैसा नियम?
क्यों स्त्री देह ही बटती है?
तन-मन का संयोग न होता
रोज ही बढ़ती-घटती है।
क्या गति तुम रूमा की जानो
क्या जानो तारा की पीड़ा?
आहत कितनी बार हुआ मन
देख पुरुष कामी की क्रीड़ा।
कहो राम!
स्त्री मूक रहे तो ही
वह उत्तम है
सर्वोत्तम है
प्रतिरोध नहीं शोभित होता
स्त्री के कोमल भावों पर
हाँ,
वह लेपन कब कर पाती है
मन के चुभते घावों पर।
इसपर भी
दुख मुझे यही है
मानव देह का लोभ त्यागकर
जिस वानर को अपनाया था
उसने ही मुझको कुलटा कह
हिय से ही बिसराया था।
जबकि मेरी मजबूरी थी
शरणागत होने की
किन्तु सुनो
दोनो ही वानर को
क्या दोष मुक्त कर सकते हो?
इनकी अपनी महत्त्वाकांक्षा
और शत्रुता इनकी थी
किन्तु घुटी
तारा-रूमा
जब-जब कामातुर हो आये
सहज प्रस्तुता इनकी होकर
दुख में कितने रैन बिताये।
मुझे पता है,
नहीं कहोगे
क्योंकि यह पुरुषोचित है
स्त्री देंह सदा से ही है।
बुद्धि-चित्त तक पहुँचे कौन
मुझे पता है
रीति-नीति और ज्ञान पुजारी
मेरे प्रश्नों पर होंगे मौन।