बुख़ार जकड़ रहा है धीरे - धीरे देह को
पहले हल्के दर्द ने दस्तक दी
फिर पीपल के पत्र की तरह
सम्पूर्ण देह कांप उठी
ज्वर आहिस्ता - आहिस्ता आकर सिरहाने बैठ गया
देह का ताप ज्वर से वार्तालाप करने लगा
देह को याद आई प्रथम - प्रथम आजार की
तब माँ के बदले छोटी माँ ने देह को ढांक दिया था
अनगिन बुलबुलों के तरह वह देह की सतह पर पैठ गई
पूरे पंद्रह दिन का उसने वनवास दिया था
माँ की ऊष्मा से बुलबुलों को फूटना ही था
गर्भनाल से जुड़ा रिश्ता इस प्रसंग से
और मजबूत होना था
माँ की अलभ्यता बोध को बूझ
देह ने ज्वर को इतने वर्ष फटकने न दिया
आज जब काँपी फिर देह
हर कोशिका ने हर क्षण माँ को याद किया !