उस राख का पाथेय लेकर मैं चलता हूँ
उस मौन की भाषा में मैं गाता हूँ :
उस अलक्षित, अपरिमेय निमिष में
मैं तुम्हारे पास जाता हूँ, पर
मैं, जो होने में ही अपने को छलता हूँ--
यों अपने अनस्तित्व में तुम्हें पाता हूँ।
उस राख का पाथेय लेकर मैं चलता हूँ
उस मौन की भाषा में मैं गाता हूँ :
उस अलक्षित, अपरिमेय निमिष में
मैं तुम्हारे पास जाता हूँ, पर
मैं, जो होने में ही अपने को छलता हूँ--
यों अपने अनस्तित्व में तुम्हें पाता हूँ।