Last modified on 15 अगस्त 2022, at 03:00

स्वतन्त्रता / लिअनीद मर्तीनफ़

अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 03:00, 15 अगस्त 2022 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार= लिअनीद मर्तीनफ़ |अनुवादक= वरयाम...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

मैंने यह बात स्‍पष्‍ट कर दी है —
क्‍या होता है स्‍वतन्त्र होना ।
इस जटिल और अति व्‍यक्तिगत अनुभव को
मैंने प्रयास किया है गहराई से समझने का ।

आपको मालूम है —
क्‍या होता है स्‍वतन्त्र होना ?
स्‍वतन्त्र होने का मतलब है
उत्‍तरदायी होना संसार की हर चीज़ के प्रति
हर आह, हर आँसू और हर तरह के नुकसान के प्रति
आस्‍था, अन्धविश्‍वास और अनास्‍था के प्रति ।
अन्‍य कोई हो न हो पर मैं उत्‍तरदायी हूँ
बँधा नहीं हूँ मैं किसी चीज़ से
इसीलिए प्रतिबद्ध हूँ —
हर चीज़ और व्‍यक्ति की स्‍वतन्त्रता के प्रति ।

स्‍वतन्त्र होना
इतना आसान है क्‍या ?
उस व्‍यक्ति की बात क्‍या करें
जिसे सहायता और सहारे की ज़रूरत है
ताकि वह उठाकर रख दे हर तरह के पहाड़ों को,
बाँध दे भविष्‍य की नदियों को,
मनुष्‍य तो मनुष्‍य है
उसकी बात क्‍या करें
स्‍वयं पहाड़ अक्‍सर कहते हैं —

आर्तनाद कर रही हैं उनकी निर्जन घाटियाँ
स्‍वयं नदियाँ चा‍हती हैं कि उनके ऊपर पुल हों
रोती है कि यानविहीन है उनका जल
आहिस्‍ता से कहते हैं रेगिस्‍तान — हमारे भीतर समुद्र हैं
ज़रूरत है बस भीतर तक खुदाई करने की,
यह इतना आसान है क्‍या
कि रेत और सिर्फ़ रेत में
नहाते रहना पड़े सहारा के रेगिस्‍तान को ?
बहुत हो लिया अब मुक्‍त हो लें इस नरक से !
और ठीक इसी वक़्त
बहुत पास कहीं हलचल मचा रहा है अतलान्तिक ।
बता रहे हैं द्वीप —
किसी दूसरे महासागर के क्रोध के बारे में
जो समूल उखाड़ देना चाहता है उन्‍हें ।

क्रुद्ध क्‍या केवल महासागर हैं ?
दिखाई दे रहा है धुआँ, राख और धूल,
ख़ून-पसीना थके शरीर पर ।
मैं उपयोग कर रहा हूँ अपनी स्‍वतन्त्रता का
कि हवा में उड़ न जाए द्वीप —
निगल न डाले पानी ज़मीन को
निर्जन न पड़ जाएँ लोगों की दुनियाएँ ।
मैं लडूँगा
हर जीवित चीज़ के लिए
टकराऊँगा हर तरह की बाधा से
यही कामना है मेरी —
हरेक को प्राप्‍त हो सच्‍ची स्‍वतन्त्रता ।

 मूल रूसी से अनुवाद : वरयाम सिंह