Last modified on 10 नवम्बर 2008, at 10:45

खुल गई नाव / अज्ञेय

अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 10:45, 10 नवम्बर 2008 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=अज्ञेय |संग्रह= }} <Poem> : खुल गई नाव घिर आई संझा, सूरज ...)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

खुल गई नाव
घिर आई संझा, सूरज
डूबा सागर-तीरे।

धुंधले पड़ते से जल-पंछी
भर धीरज से
मूक लगे मंडराने,
सूना तारा उगा
चमक कर
साथी लगा बुलाने।

तब फिर सिहरी हवा
लहरियाँ काँपीं
तब फिर मूर्छित
व्यथा विदा की
जागी धीरे-धीरे।