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मृत्यु / गीता शर्मा बित्थारिया

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कितने प्रणयी प्रेमी हैं
जो आगे बढ़ कर
भर लेना चाहते हैं उसे
अपने आलिंगन में
कितने प्रार्थी बाट जोहते अहिर्निश
शर शैय्या पर पड़े पड़े
पर
मृत्यु का सहज आकर्षण है
जिंदादिली से जिया जीवन
जिसे प्रेम है जीवन से
मृत्यु भी चाहने लगती है उसे ही चुपचाप
प्रेम में
अपने मोहपाश से
रचती है विविध प्रपंच
क्योंकि जो जीना चाहता है
उसे लुभा नहीं पाती अपने रूप से
फिर धरती है छद्म भेष
मोहिनी रूप धर करती है
अमृतत्व देने के अनुबंध
ठग लेती है
उसे जो जीना चाहता है
छीन लेती है
उससे उसका प्रेम
सुने रीते घर आंगन में
अमरता नाचने लगती है
जिसे देखना नहीं चाहते
पीछे छूटे तुम्हारे पाश से मुक्त
भीगे पीर भरे प्रिय जन नयन
ओ मृत्यु सुनो
हमें नहीं चाहिए तुम्हारी
अमरता की चंद बूंद
तुम चखो इन्हें
उन्हें जीने दो
जो जीना चाहते हैं
एक भरपूर उम्र तक जीवन
जैसे दबे पांव आ
रात निगल जाती है चमकता सूरज
ओ निर्मोही निस्पृह्य मृत्यु
तुम क्यों नहीं कर पाती
जीवन से प्रेम
तुम
प्रेम के लिए बनी ही नहीं हो
कर लो कितने ही निष्फल प्रयास
तुम कभी नहीं जान पाओगी
जीवन और प्रेम के आनंद