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कभी-कभी / त्रिनेत्र जोशी

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कभी-कभी
चुपचाप
खो जाती हैं चीज़ें
जैसे आज़ादी

कभी-कभी बेहिसाब
आ जाता है गुस्सा
जैसे अंन्धड़

कभी-कभी चुपचाप
आ जाती है रुलाई
जैसे बुढ़ापा

कभी-कभी यों ही
गिर पड़ता है
आदमी
जैसे पुरानी दिल्ली की कोई इमारत

कभी-कभी
अकसर हो जाता है इलहाम
सीधे चलना ठीक नहीं
गिरते-पड़ते ही चलो

कभी-कभी
ऎंठकर चलता है जो
हो उठता है तानाशाह
अकसर कभी-कभी

मैं कहता हूँ
जब हमें कहीं पहुँचना ही नहीं है
तो धीरे-धीरे क्यों नहीं सीख लेते
चलना
कभी-कभी