Last modified on 16 नवम्बर 2022, at 19:58

लघु कविताएँ / सांत्वना श्रीकांत

वीरबाला (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 19:58, 16 नवम्बर 2022 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=सांत्वना श्रीकांत }} {{KKCatKavita}} <poem> '''1.रि...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

1.रिक्तता...
दूर तक फैली थी 'रिक्तता'
काई की तरह
कहीं भी उग जाती है
जहां भी दिखती नमी
बाहें फैला विस्तार ले लेती है
दरअसल
यह रिक्तता ही है
जिसमें मै और तुम
रीत रहे...

2. इच्छा



हम उस तरह चाहे जाने के
इच्छुक थे
जैसे
मृतक -देह से
लिपटे परिजन
वापस बुला लेना चाहते हैं अपने प्रिय को

3.अनुपस्थिति

साँसे भी नही भर पा रहे थे पूरी तरह
घड़ी पर टोह लगाए,
वक्त को वक्त दे रहे थे!
तुम्हारी ‘छुअन’ जो मनभर समेटी थी,
उससे जिजीविषा छाँटने की अपूर्ण कोशिश
में
दरअसल
अनुपस्थिति’ को ही महसूस कर रहे थे।