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दोहे-3 / मनोज भावुक

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फागुन में आवे बहुत निर्मोही के याद।
पागल होके मन करे खुद से खुद संवाद॥21॥

माघ रजाई में रहे जइसे मन में लाज।
फागुन अइसन बेहया थिरके सकल समाज॥22॥

कींचड़-कांदों गाँव के सब फागुन में साफ।
मिटे हिया के मैल भी, ना पूरा त हाफ॥23॥

महुए पर उतरल सदा चाहे आदि या अंत।
जिनिगी के बागान में उतरे कबो वसंत॥24॥

के बाटे अनुकूल आ के बाटे प्रतिकूल।
ई कहवाँ सोचे कबो उड़त फागुनी धूल॥25॥

फागुन के हलचल मचल खिलल देह के फूल।
मन-भौंरा व्याकुल भइल, कर ना जाये भूल॥26॥

झुक-झुक के चुम्बन करे बनिहारिन के गाल।
एतना लदरल खेत में जौ-गेहूँ के बाल॥27॥

एतना उड़ल गुलाल कि भउजी लाले-लाल।
भइया के कुर्ता बनल, फट-फुट के रूमाल॥28॥

मह-मह महके रात-दिन पिया मिलन के याद।
भीतर ले उकसा गइल, फागुन के जल्लाद॥29॥

भावुक तू कहले रहS आइब सावन बाद।
फगुओ आके चल गइल, ना चिट्ठी, संवाद॥30॥