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यकीन / अमरजीत कौंके

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इस मौसम की
बदसूरती के खिलाफ़
मैं इतना करूंगा

कि मैं उखाड़ कर फेंक दूँगा
गमलों में उगे तुम्हारे कैक्टस
और बोऊँगा इस मिट्टी में
सूरजमुखी के बीज
तुम देखोगे
कि इसी मिट्टी में
जहाँ उगे थे तुम्हारे
कँटीले कैक्टस
वहीं उगेंगे सूरजमुखी
जो इन अँधेरी रातों में देंगे
चेतना के बंद दरवाजों पर दस्तक

इस मौसम की
बदसूरती के ख़िलाफ
मैं इतना करूंगा
कि मैं अपने घर में पालूंगा
एक कोयल
जिस की आवाज़ टकराएगी
इन काली ख़बरों के साथ
और यकीन है मुझे
कि लौटेगी विजयी होकर

इस मौसम की
बदसूरती के ख़िलाफ
मैं अपने बच्चों के
होठों पर बांसुरी
और हाथों में पुस्तकें रखूँगा

मैं बस इतना करूँगा।