मोहब्बत / अमरजीत कौंके

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वह आई मेरे पीछे से अचानक
मेरी आँखों पर हाथ रख कर बोली
बताओ कौन हूँ मैं?

मैंने कहा
उदासी हो तुम
सदा रहती जो मेरे आस-पास
जिसमें अस्त हो जाते मेरे सारे सूरज

वह बोली
नहीं

मैंने कहा
कविता हो फिर तुम कोई अनलिखी
शब्द-शब्द
कोरे पन्नों की तलाश में भटकती
उन हाथों को ढूँढ़ती
जो बाँध सकें
इन शब्दों को तरतीब में

वह बोली
नहीं यह भी नहीं

मैंने कहा-
फिर याद हो कोई पुरानी
कोई भूली हुई कहानी
कोई उम्र बचपन जैसी
जो फिर कभी न आनी

वह बोली-
कुछ और बताओ

मैंने कहा-
तुम ऋतु हो कोई उदासी
या नदी कोई प्यासी
समुद्र की तलाश में
मरुस्थल के सीने पर दम तोड़ती

वह बोली
नहीं

मैंने कहा
तुम ही बताओ फिर
उसके हाथों को पकड़ कर बोला
हार गया मैं तो

उसने मेरी आँखों से
हाथ उठाए और
हँसी जोर से ताली बजा कर

मेरी आँखों के आगे से
छंट गए रंग-बिरंगे सितारे जब
तो मैंने देखा
कि पृथ्वी फूलों से भरी पड़ी थी
और आकाश में गूँज रही थी
सरगम।

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