Last modified on 18 दिसम्बर 2022, at 09:50

इतिहासांत / कैलाश वाजपेयी

Firstbot (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 09:50, 18 दिसम्बर 2022 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=कैलाश वाजपेयी |अनुवादक= |संग्रह=स...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

एक पर एक पर एक
सारे आकर्षण मरते चले गए
हम जिन्हें दर्द का अभिमान था
भद्दी दिनचर्या से
अपने क़ीमती घाव
भरते चले गए

हमारा सब अनिर्णीत छूट गया
उस नक्षत्र की
तरह जो-
भरी दोपहर में टूट गया