तेज़ मुक्के मारे धारासार इतने
अंधेरा था जहाँ गली में
वहीं गिर गया
मेरी हथेली पर
सब लाल लाल
लटके थे
ताम्बाई ताबीज़ गोधूलि के
--रोशनी
गली बाहर
चेहरा वह छिछड़ गया जो
दिखा नहीं फिर
"एक मुक्का भी कभी खुली हुई हथेली और उंगलियाँ था"-- येहदा अमिख़ाई की यह कविता-पंक्ति पढ़कर