Last modified on 13 नवम्बर 2008, at 21:34

गिरना / अनीता वर्मा

अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 21:34, 13 नवम्बर 2008 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=अनीता वर्मा |संग्रह= }} <Poem> रहस्यों को समझने से ज़...)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

रहस्यों को समझने से ज़्यादा ज़रूरी है
चीज़ों के होने को समझना

मज़बूती से खड़े हैं पहाड़
समुद्र में आता है ज्वार
पृथ्वी घूमती है लट्टू की तरह
मनुष्य गिरता जाता है गर्त्त में
इनके कुछ कारण और जवाब हैं हमारे पास
हमें रहना और होना होता है इनके बीच

पृथ्वी की घूमती चक्की में कोई रुकावट नहीं है
समुद्र उछाल ही लेता है अपना पानी
पहाड़ गंजे होने के बावजूद खड़े हैं अपने
आदिम पत्थरों के साथ
लेकिन मनुष्य
वह लेटा है पेट के बल पैसे बटोरता हुआ
भागता खोया हुआ बाज़ारों में
एक साथ खुश और डरा हुआ
जैसे कोई बीमार अपनी ही तीमारदारी करता हुआ

वह पहचानता है दुश्मन को उसके हज़ार हाथों के साथ
अपने घरों में बैठ उससे दोस्ती करता है
मिलाता है हाथ
आओ रहो हमारे घर
अभी हम और गिरने को तैयार हैं ।