Last modified on 29 मार्च 2023, at 16:51

हवा / महेंद्र नेह

अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 16:51, 29 मार्च 2023 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=महेंद्र नेह |अनुवादक= |संग्रह= }} {{KKCat...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

घाटियों से उठी
जंगलों से लड़ी
ऊँचे पर्वत से जाकर टकरा गई !
हवा मौसम को फिर से गरमा गई !!

दृष्टि पथ पर जमी, धुन्ध ही धुन्ध थी
सृष्टि की चेतना, कुन्द ही कुन्द थी
सागरों से उठी
बादलों से लड़ी
नीले अम्बर से जाकर टकरा गई !

हर तरफ़ दासता के कुएँ, खाइयाँ
हर तरफ़ क्रूरता से घिरी वादियाँ
बस्तियों से उठी
कण्टकों से लड़ी
काली सत्ता से जाकर टकरा गई ?