Last modified on 24 अप्रैल 2023, at 20:23

क्या ख़्वाब बेचिए कि वो बाज़ार ना रहे / रवि सिन्हा

अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 20:23, 24 अप्रैल 2023 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=रवि सिन्हा |अनुवादक= |संग्रह= }} {{KKCatGha...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

क्या ख़्वाब बेचिए कि वो बाज़ार ना रहे
फ़िरदौस-ए-गुम-शुदा के ख़रीदार ना रहे

जिनके लहद में पाँव हैं उनकी तो छोड़िए
आशिक़ भी अब जुनूँ के तलबगार ना रहे

माज़ी की आँधियों में है इमरोज़ का दयार
सारी जड़ें तो रह गईं अश्जार ना रहे

तारीख़ शहसवार थी रौंदे गए थे लोग
फ़ातेह जो बने वो गुनहगार ना रहे

क़ानून का ही शह्र है क़ानून जो करे
महफ़ूज़ ना रहे कोई घर-बार ना रहे

सुल्तान सब के सामने उरयाँ फिरे तो क्या
बच्चे भी आज सच के तरफ़दार ना रहे

शब्दार्थ :

फ़िरदौस-ए-गुम-शुदा – वह स्वर्ग जो खो गया हो (lost paradise),
लहद – क़ब्र (grave),
माज़ी – अतीत (past),
इमरोज़ – आज का दिन (today),
दयार – इलाक़ा (area),
अश्जार – पेड़ का बहुवचन (trees),
फ़ातेह – विजयी (victor),
महफ़ूज़ – सुरक्षित (safe),
उरयाँ – नंगा (naked) ।