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एक आत्मपरक ग़ज़ल / रामकुमार कृषक

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पूछो न हाल, थे नहीं इस हाल में कभी,
रहते थे रोज़ उम्र के ननिहाल में कभी ।
 
कहने को नीमगोत* हैं कड़वे नहीं मगर,
पेड़ों पे हम पके न पके पाल में कभी ।

गजरों में गुंथे हैं तो कभी देव - सिर चढ़े,
झड़कर ही बचेंगे जो बचे डाल में कभी ।
 
यूँ तो समूचा मुल्क़ दुआओं का मुंतज़िर,
गुजरात - सी गुज़रे नहीं बंगाल में कभी ।

हारे नहीं हैं हौसला जीते न हों भले,
तूफाँ में हम घिरे हों या भूचाल में कभी ।
 



  • नीमखेड़िया या नीमगोत । मेरे गोत्र का नाम।