Last modified on 14 नवम्बर 2008, at 11:58

पीले मील / जगदीश गुप्त

अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 11:58, 14 नवम्बर 2008 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=जगदीश गुप्त |संग्रह= }} <Poem> खिली सरसों, आँख के उस प...)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

खिली सरसों, आँख के उस पार,
कितने मील पीले हो गए?
अंकुरों में फूट उठता हर्ष,
डूब कर उन्माद में प्रति वर्ष,
पूछता है प्रश्न हरित कछार,
कितने मील पीले हो गए?
देखकर सच-सच कहो इस बार,
कितने मील पीले हो गए?

एक रंग में भी उभर आतीं,
खेत की चौकोर आकृतियाँ,
रूप का संगीत उपजातीं,
आयतों की मौन आवृतियाँ,
चने के घुंघरू रहे खनकार,
कितने मील पीले हो गए?
मटर की पायल रही झनकार
कितने मील पीले हो गए?

पाखियों के स्वर हवा के संग,
आँज देते बादलों के अंग,
मोर की लाली हुई लाचार,
कितने मील पीले हो गए?
देखती प्रतिबिम्ब रूककर धार,
कितने मील पीले हो गए?