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दस्तखत / अशोक तिवारी

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दस्तख़त

लमहे गुज़रते चले जाते हैं
मुट्ठी में भरी बालू की तरह
अतीत की खिंचती चली जाती हैं
दीवारों पर दीवारें....

रात के नीरव और शांत
सन्नाटे में
जब हक़ीक़ी दुनिया से दूर
एक अलग ही दुनिया में खोई होती है दुनिया
अँधेरे की बग़ल से झांकती चाँदनी
खिड़की के खुले कोनों से देती है दस्तक
आपके चेहरे पर
और आप मुस्कराती आंखों से
इठलाती चाँदनी के साथ
बात करना चाहते हैं घुट-घुटकर
बहुत सी बातें
जो न कर सके किसी से भी साझा
किसी को नहीं बनाया
हमराज जिन पलों का
उन पलों को खोलकर
स्तब्ध हलकी चाँदनी में
बनाना चाहते हैं गवाह चाँद को
कि हाँ मैंने किए हैं
दस्तख़त
रात की स्याही से
गुज़रते लमहों के ऊपर

वे लमहे
जो कल होंगे इतिहास का एक क़तरा
वे लमहे जो होंगे
आपके होने
और होकर भी न होने
की एक छोटी सी दास्तान
वे लमहे जो करेंगे
अनकही अनगिनत कहानियों को
प्रकट न होने का अफ़सोस
और जो वक़्त के गुज़रते चले जाने
आपाधापी में सिर्फ़ आज को जीने
न ले पाने भूत की कोई ख़बर
और न ही देख पाने भविष्य को
एक लंबी सांस लेकर छोड़ देंगे
उन्हीं लमहों में
जब चारों ओर बिखरी चाँदनी
अपने होने का अहसास
बिखेरती है
जब आपके चेहरे पर
जो देता है अपनी बेगुनाही का सबूत
आवारा बादलों के झुंड
पूरे दृश्य पर गिरा देते हैं पर्दा
पार्श्व संगीत है कि
फिर भी जारी रहता है
उसी अँधेरे में बड़बड़ाहट के साथ
जब आप होते हैं अपने आपमें ही गुम
करते हैं अपने अंदर की
अँधेरी, सीली हुई दीवारों से बातें
हौले-हौले धीमे-धीमे
लमहा-लमहा गुज़र रहा है
पहले गुज़रे लमहों की तरह
और हम
उन लमहों को गुज़रते देख रहे हैं
हाथ हिलाकर हवा में
दस्तख़त करते हुए।

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26/05/2013