यहाँ धूप का कोई है नहीं ।
यहाँ कोई नही है अपना
धान का भी ।
इस मैदान मे आने पर ही तुम समझ जाती —
मनुष्य तो नही हूँ मै , वास्तव मे मैं हूँ जल !
उस पतली नहर मे चलकर नदी से आकर
नदी मे ही बह रहा हूँ अविरलब ।
क्यों जानती हो ?
अगर इस स्वच्छ जल को देखकर
तुम्हारा मन हो आए नहाने का !
यहाँ तो कोई नही है।
अगर सारे कपड़े उतारकर
एकबार नहाने को उतर आओ —
इसीलिये !
जयश्री पुरवार द्वारा मूल बांग्ला से अनूदित