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ये अवश क्षण / रणजीत

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ये अवश क्षण हैं नहीं विश्वास के लायक
न करना
उफ !
अरे विश्वास मुझ पर !!
यह गर्मी :
गरम हवाओं, गुनाहों का मौसम
पता नहीं कब क्या हो जाये।

इतनी सटकर आज न बैठो
और न अपने नए धुले केशों को
मेरे हाथों पर झुकने दो
मत तोड़ो इनकी समाधि तुम
अपनी कुर्सी दूर हटा लो
इतनी दूर
कि गंध तुम्हारे कुँवारे तन की
मुझ तक पहुँच न पाये
गंध : कि जैसे धूप तपी धरती पर
पहली बूँद पड़े वर्षा की औ’ उड़ जाये।

इस सन्नाटे भरी दुपहरी में जाने क्यों
आँखों की मुस्कान तुम्हारी
मेरे मन की अगम घाटियों में ऐसे तिरती है
जैसे चाँदी की नन्ही अनगिनत घण्टियों के निर्मलतम
तरल स्वरों की
सिहराती ठंडी बौछारें
और जागने लगती हैं उद्दाम वेग से
प्रकृति की अज्ञात अंधी
कौन जाने किस तरह की ताक़तें :
नींद में सोये भयानक जंतुओं सी !
इसलिए तुम
आज मत करना अरे विश्वास मुझ पर।