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पिता / चित्रा पंवार

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बिदाई के समय
रोती सुबकती नवब्याहता को समझाती
स्त्रियाँ कह रही हैं
मायके की ओट पहाड़ जैसी होती है
जब भी मन करें चली आना
रोती क्यों हो!
जबकि जानती हैं वह सब
ओट मायके की नहीं
पिता की थी
बेटी और उसके दुखो के बीच
पिता अपनी बूढ़ी कमर को इतनी सख्ती से
साधे खड़े रहे
कि एक दिन पहाड़ बन गए
उसके सारे दुखों को अपनी काया में समेटते पिता
बार बार यही दोहराते
ना पहाड़ रोता है, ना पुरुष रोते हैं
मगर वह भूल जाते
बेटियों का पिता मात्र पुरुष और पहाड़ नहीं होता
उनकी चिंता में घुलता, पिघलता
तरल हृदय भी होता है
गले तक दुख से भरे
पहाड़ पिता
एक दिन नदी बन कर फूटे
और धराशाई हो गए
संयुक्त हिचकियों के स्वर से गमगीन मंडप में
धीरज बंधाती बड़ी मां
भरी आँखों से याद कर रही हैं
पिता के चिता पर गिरते ही
कैसे भरभरा कर गिरा था उनके मायके का पहाड़
चाची को याद आ रही है
ले जाने का जवाब लेकर आई भईया की चिट्ठी
अब वहीं रहो, वही तुम्हारा घर है,
छोटी छोटी बातों पर यूं तुनकना छोड़ दो,
अब तुम बच्ची नहीं रहीं
दादी मुंह में पल्लू दबाए
याद कर रही हैं पिता की अनदेखी छवि को
वो होते तो साठ साल के बूढ़े के साथ
बारह बरस की बेटी को कभी ना बाँधते
मां जिनकी धूमधाम से शादी करने का ख़्वाब
साथ लेकर ही नाना स्वर्ग सिधार गए
उनकी अलमारी से अच्छी खासी रकम, जेवर और एक चिट्ठी भी मिली
जिसमें लिखा था
मेरी बावली बिटिया की शादी के लिए
मां के कानों में आज भी पिघले सीसे की तरह तैरते हैं
भाइयों के कहे शब्द
इसे राजाओं के घर ब्याहने के लिए
अपने बच्चों को क्या भिखारी बना दें!
मिश्रानी चाची को याद आ रहा है
मायके जाते ही
दलान में हुक्का गुड़गुड़ाते पिता का चहक कर पूछना
आ गई तू!
और लौटते समय दूर तक छोड़ने आना
नजरों से ओझल होने तक निहारना
अपनी बिदाई, अपने पिता
अपने पहाड़ को याद करती स्त्रियाँ
मन ही मन आशीष रही हैं उसे
कभी ना छूटे तुम्हारा मायका
सलामत रहे तुम्हारा पहाड़
सलामत रहें तुम्हारे पिता