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संगीतज्ञ / नितेश व्यास

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हम सभी संगीतज्ञ थे
कुछ घरानेदार और कुछ बेघर
हम सबने शुरू तो की थी स्वर-साधना एक साथ
एक ही गुरु से
किसी का कण्ठ था कोयल-सा मधुर
किसी का कौए-सा कर्कश
और भी बहुत से पशु-पक्षियों के स्वर थे
हममें से हर किसी के पास
लेकिन विलग-विलग कण्ठों में एक ही स्वर बजता था अलग-अलग
वहाँ नहीं गा सकते थे दो पक्षी एक साथ एक स्वर में

लेकिन सभी स्वर लगते थे
मनभावन, अपने होने में
जैसे एक ही जीभ पर बैठे षड् रस

भिन्न-भिन्न वाद्यों की लय-ताल पर भी चले थे किसी लहर की तरह

हमारे कण्ठ कड़कड़ाती ठण्ड में जम जाते
और पिघल जाते तपतपाती आंच पर

उदधि में बजता है ज्वर
पूर्णिमा को लेकिन उदर में
आठों पहर बजता रहता मृदंग
जो हर समय माँगता
सद्य गूंधा हुआ आटा
चाहे भरी अमावस ही क्यों न हो
मुखचन्द्र खिल उठता
चूल्हे के ताप से

हर गीत के कण्ठ में फंसा रहता एक अदृश्य काँटा
जिसे निकालने के उतावलेपन में हममें से कुछ हुए आत्म-हन्ता
और कुछ बड़ी धीरता से रचते जा रहे थे
अपनी शोकाकुल मृत्यु को सुनाने के लिए
लोकाकुल
ग्राम्य-गीत॥