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प्यार दु: शासन / रणजीत

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लो!
खींचता है प्यार का मेरा दु: शासन
जीर्ण-पीले विधि निषेधों के जहर से सिक्त
बीती सभ्यता के आवरण का चीर
तुम्हारी बंदिनी
इन्सानियत की द्रौपदी की देह पर
समय-रथ के चक्र से कुचले हुए हारे
तुम्हारे संस्कारों के नंपुसक पांडवों के सामने ही।
देखते हैं एक मरणासन्न
अंतिम साँस लेती व्यवस्था का कृष्ण उसको
और कब तक ढाँक पाता है?