अपने अस्तित्व की रक्षा के लिए
मैंने अपनी आत्मा को रेहन रखा था
सोचा था:
कि जब फिर मेरे पास पर्याप्त शक्तियाँ हो जाएँगी
उसे छुड़ा लूँगा
लेकिन मुझे क्या पता था
कि ज्यों-ज्यों मेरी शक्तियाँ बढ़ती जाएँगी
शैतान का कर्ज भी बढ़ता ही चला जाएगा
और आखिर जब मैं उसे छुड़ाने लायक हुआ
मेरी आत्मा नीलाम हो चुकी थी।
अपनी मिट्टी के बचाव के लिए
मैंने अपने विद्रोह को सुलाया था
सोचा था:
जब मैं फिर लड़ने लायक हो जाऊँगा
उसे जगा लूँगा
लेकिन मुझे क्या मालूम था
कि वह अफ़ीम जो मैंने उसे सुलाने के लिए दी थी
उसके लिए ज़हर साबित होगी
और आखिर जब मैं लड़ने लायक हुआ
मेरा विद्रोह मर चुका था।
उफ़!
जिसे आपद्धर्म की तरह स्वीकार किया था
उसे जीवन-दर्शन बनाने के लिए मजबूर हुआ!
अब मैं भटक रहा हूँ
अपने आत्मा-हीन अस्तित्व के कंधों पर
अपने असफल विद्रोह की लाश रखे हुए
ताकि देख लें मेरे हम-सफ़र
समझ लें:
कि किस तरह समझौता
एक सामयिक समझौता भी
विद्रोह की आत्मा को तोड़ देता है।