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चिकनी फिसलन भरी / सुरेश सलिल

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यह चिकनी फिसलन भरी सदी
बेहद ठण्डेपन से दबा देती है घोड़ा
और
ताज़ा चमकते ख़ून से पेण्ट करती है
धरती का कैनवास

यह चिकनी फिसलन भरी सदी
रैम्प पर उतरती है लगभग बे-लिबास
पेश करती ख़ुद को
लॉलीपॉप की तरह

यह चिकनी फिसलन भरी सदी
बहेलियों और बूचड़ों को थमाती है राजदण्ड
और पत्तियों का हरा रंग पीले में तब्दील हो जाता है

यह चिकनी फिसलन भरी सदी
लुँगाड़ा धमाचौकड़ी करती हुई
इतिहास और अदब के उन सफ़हों पर
जिन्होंने आग को आदमी का किरदार दिया था

इस चिकनी फिसलन भरी सदी ने
सिर के बल खड़े होने को मजबूर कर दिया वर्तमान को
और उठा रही है कुछ यूँ
कि क़यामत के दिन तक
उठाती रहेगी यूँ ही...