भूली बात पसीने की
ठण्डा शर्बत पीने की।
सर्दी की मजबूरी है
ठिठुर-ठिठुरकर जीने की।
सबको भाती मूँगफली
गूँज उठी है गली-गली।
भाया गाजर का हलुआ
गर्म पकौड़ी लगी भली।
छाँव न तनिक सुहाती है
धूप हमें सहलाती है।
कभी दुबकती गोदी में
दूर कभी भग जाती है।
(नवभारत बिलासपुर, 26 जनवरी1997)