Last modified on 23 अगस्त 2023, at 00:20

खलिहान / राकेश कुमार पटेल

सशुल्क योगदानकर्ता ५ (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 00:20, 23 अगस्त 2023 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=राकेश कुमार पटेल |अनुवादक= |संग्र...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

फिर से आ गया है क्वार
धान के सुनहरे दानों से
अपनी बखार भरने को तैयार है
बाँहें पसारे खलिहान

है तप रहा है सूरज
तिरछी निगाह किए
बुटाई पहलवान की पीठ पर
जो समेट रहे बड़े जतन से
एक-एक दाने को

गौरैया भी लगी है
मेहनत से अपने हिस्से का
दाना चुगने में
कौओं ने मचा रखी है काँव-काँव
बरगद के पेड़ पर

सहेज लो, समेट लो
बाँट लो, ख़ुशी से नाच लो
जाने कितने धूप-छाँह
बरसात झेलकर
पहुँचा है धान
खलिहान पर ।

2
खलिहान गवाह है
अनाज के ढेर का

जिसके आने की खुशी में
गोइंठे की आग पर
कुबड़ी दादी ने चढ़ा दिया है
गुड़ का एक मीठा टुकड़ा
जिसकी आग से उड़ता हुआ धुआँ
बिखेरता है संदेश दिग-दिगंत में
जिजीविषा की विजय का

खलिहान बुड्ढा बाबुल है गाँव का
जो खुद पर तने तंबुओं में
रात भर उल्लास के बाद
सुबह विदा करता है
नम आँखों से बेटियों को
और स्वागत करता है
'छाँक देकर' नई बहुओं और नवजातों का

3
खलिहान साक्षी है अंतिम बारात का
जहाँ से शुरू होती है श्मशान की यात्रा
और जिसके आँगन के पीपल में बँधते हैं
घंटे मृतकों के सम्मान में

खलिहान गवाह है हँसते-खेलते बचपन का
जिसकी गोद में सीखते हैं सभी
कबड्डी और गुल्ली-डंडा
सीखते हैं साथ खेलना और लड़ना-झगड़ना

खलिहान स्थान है उत्सव का
जहाँ सारे जानवर जुटकर
कराते हैं अपनी पूजा
अच्छे स्वास्थ्य की कामना में।

खलिहान हमारे जीवन के हर रंग का
शाश्वत साक्षी रहा है

लेकिन आज खलिहान
रो रहा है अपनी दुर्दशा पर
अनाज की ढेरी अब वहाँ नहीं लगती
गीले गोबर से लीपकर
अब तैयार नहीं किया जाता उसे
कबड्डी और गुल्ली-डंडा खेलता बचपन कहीं खो गया
काँटे उग आए हैं उपेक्षित खलिहान के सीने पर ।