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गिलावा / राकेश कुमार पटेल

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अगहन की अलसाई धूप में
ठाकुर के खलिहान की नंगी दूब पर
उकडूँ बैठे गंगा भगत ने देखा
अपनी धुँधली उदास आँखों से
सुन्दर महतो की क्रँक्रीट की हवेली को

तो उनकी शिथिल मांसपेशियों में
एक अजीब-सी सिहरन दौड़ गई
एक आह उठी बीते समय पर
और धुँधलके में चमकती रहीं कुछ तस्वीरें

उन्हें एकाएक भरोसा नहीं हुआ कि
उनके मजबूत और मांसल यही पैर
अपनी रगड़ से मथकर बनाते थे
पानी और मिट्टी का ऐसा समानुपात

जिससे जुड़ती थी एक-एक ईंट
बनता था सपनों का घर,
बसता था अपना एक गाँव
जिसमें सभी साथ-साथ रहते थे

उसके कान अब भी तरसते है,
आँखें अब भी बाट जोहती है कि
फिर कोई उन्हें बुलाने आएगा
'भगत काका' मेरे यहाँ गिलावा बनाने चलो न !