प्रार्थना में फूल
मन में अर्घ्य देकर
लौट आए
डबडबाई आँख लेकर !
दर्द के मस्तूल चुभते थे सदा
ज़िन्दगी के शूल चुभते थे सदा
प्राण संकट में हमेशा ही रहे
हलक में कंकर करकते थे सदा
ज़िन्दगी किस मोड़ से गुज़री
क्या करेंगे
अब भला यह जानकर !
वह बिखरकर रातरानी हो गई
इक अधूरी सी कहानी रह गई
मेज़ पर रखे हुए काग़ज़ क़लम
बस, यही उसकी निशानी रह गई
बहुत दुख होता सुनाती गर तुम्हें
वह व्यथा की कथा
खुद ही बाँचकर !
छद्ममय संसार था उसके लिए
क्या बचा था और जीने के लिए
योजनाएँ मुँह चिढ़ाती ही रहीं
विषभरा जल मिला पीने के लिए
भूल कोहबर की प्रतिज्ञाएँ
काल बन बैठा
स्वयं ही स्वयंवर !