समाज की नब्ज़ टटोल
परिवेश की बारीकियाँ परख
बदलते संस्कार का;
टकराते विचार का
गर्भधारण कर भाव
पालती,
देती जन्म उन्हें
कविता-कहानी रूप में
बहुत दिन हुए
उमड़ता नहीं भाव
रूकता नहीं विचार
कोख में
बाँझ हो गई हो सोच जैसे
रोज़ की हत्या, रेप, दंगों की ख़बरों से
कोई विचार यदा-कदा
गर जाता है ठहर
गर्भ में दिल के
पनप नहीं पाता
जाता है गिर
विमर्शों के शोर
मोमबत्ती मार्च के मौन से,
हो चुका है मिस-कैरिज
कई मासूम विचारों का।