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ध्यान तुम्हारा / वंदना मिश्रा

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मैंने किताबों से सिर न हटाने की
कसम ली थी और तुम
अक्षरों के बीच से
न जाने कैसे दिख गए मुझे
कैसे कहूँ कि ठीक-ठीक यही है
मोहब्बत
पर ध्यान तुम्हारा ऐसा आकर्षक
कि खिंच जाते हैं मेरे होठों के कोर

बहुत मुश्किल से संभलती है हँसी
और चौंक जाती हूँ अपनी ही
साँसों की आवाज से
पता नहीं क्यों मुझे डर नहीं लगता

लगता नहीं कि खो दूँगी तुम्हें।
तुम्हें पाने से पहले से पता नहीं था
कि क्या-क्या खो रही हूँ।

जैसे भटकते मन को
दोनों हाथों से पकड़ कर
किसी ने सम्भाल कर रख दिया हो
सम्भलनें से पहले गिरना कहूँ इसे
क्या गिरने से पहले सम्भल जाना

मेरी आँखों में तिरते और होठों पर थिरकते
भावों को क्या कहोगे
जरा सोच कर बताना