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युग्मन / भावना जितेन्द्र ठाकर

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सुस्ता रहे शृंगार में
एक उन्मादित क्रांति उठी
कबरी में सजे फूल खिल उठे
नथ का मोती मुस्कुरा दिया
लबों की तिश्नगी अंगड़ाई ले उठी
रिते नयन में शोर उठा
मौन पड़े पाजेब में सहसा
उर्जा का संचार हुआ
भाल पर लबों की मोहर
महसूस क्या हुई
सैंकडों स्पंदनों ने जन्म लिया
होता है ऐसा हर बार
हमदोनों के युग्मन पर!
रात भी नग्में गाती है
पुष्कर की झील में हँसते कँवल
गज़लें गुनगुनाते है
दमनकारियों की शिराओं में
सभ्यताएँ जन्म लेते ही
देवदासियों का दोहन
परिवर्तित होते नेह में बदलता है
औरतें इच्छाएँ पैदा करती है
मर्द मुस्कुराते पूरी करते है
हरसू प्रेम परिभाषित होते ही
पूरब की ओर से शंखनाद संग
आरती की तान बजती है
एक मिलन का प्रतिबिम्ब न जानें
कितने सुर जगाता है।