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मक़बरे में सन्तूर / अदनान कफ़ील दरवेश

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मक़बरे में भरा है कोमल अन्धेरा
जिसमें गूँजते हैं तुम्हारे स्वर
ताज़ी हवा के झोंके की तरह...
केवल मैं देख रहा हूँ तुम्हें इस वक़्त
केवल मैं सुन रहा हूँ तुम्हें इस वक़्त
केवल मैं पा रहा हूँ तुम्हें इस वक़्त
                    एक धुएँ की पतंग की तरह हलका
                          उठ रहा हूँ अनजान दिशाओं की जानिब...
एक अदृश्य पुल उगता है हमारे बीच
         जिस पर दौड़ता हूँ मैं
            तुम्हारी शोले-सी लपकती आवाज़ की ओर...
पत्थरों में उत्कीर्ण अरबी आयतों में
      गूँजते हैं तुम्हारे सुर
प्राचीनता, मौन के धुँधलके में होती है मुग्ध
जब कंचन-सी रौशनी में नहाया है गुम्बद
रोशनदान, दिये की तरह मुनव्वर होते हैं
पायों के पीछे छिपती है परछाइयाँ
सीढ़ियाँ काल के परे धँसती हैं
एक-पर-एक
              मेहराब, शाम के पृष्ठ पर
                       एक असम्भव की तरफ़ खुलते हैं
तुम लगाती हो पंचम सुर
        और तब मेरा पूरा शरीर
                दिल की तरह धड़कता है
                         धक् धक् धक्...