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स्वच्छन्द स्त्री / नेहा नरुका

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एक स्वच्छन्द स्त्री
पतंग की तरह
कुछ देर आसमान में उड़ी
फुर्र... फुर्र... फुर्र...

गिरी फिर अचानक
मुण्डेर पर
मुण्डेर से सरक कर आ गई आँगन में

बब्बा के पैरों तले दबी रही
दो-चार घण्टे
अम्मा के चौके में
चूल्हे के पास
फटी लौ बन बिलखती रही
पाँच-छह घण्टे

फिर राख के संग
कूड़ा समझकर
तसले में रख
फेंक दी गई
गाँव के किनारे बने घूरे में

इस तरह
उस स्वच्छन्द स्त्री का
अन्त हुआ ।