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शीत ऋतु / अर्चना कोहली

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चहुँदिश अलाव सब जलें, बैठे सब हैं मीत।
हुई विदाई ग्रीष्म की, आई ऋतु अब शीत॥
आँखमिचौनी धूप की, ठिठुरे सारे आज।
घना कोहरा छा रहा, फैला हिम का राज॥

बजते किट-किट दाँत हैं, मुख होता है लाल।
शिथिल सभी अब अंग हैं, रूखी होती खाल॥
सहम गया अब सूर्य है, ताप हुआ अब मंद।
निकले ऊनी वस्त्र हैं, किवाड़ सबके बंद॥

मोहक अब कुदरत लगे, शबनम झरती पात।
खिलते सुंदर फूल हैं, शीतल होती वात॥
 प्यारी लगती अब धरा, सजते सब हैं बाग।
 आया मौसम साग का, चुप होते हैं काग॥

हरा दुशाला अवनि का, मुदित सभी हैं लोग।
गाजर आती ख़ूब है, लगता हलवा भोग॥
रुचिकर लगती चाय है, होती वह है साथ।
कैसा होता सर्द है , मलते सब हैं हाथ॥

पर मुश्किल में दीन हैं, फटे सभी के चीर।
जीवन है फुटपाथ पर,बहते उनके नीर॥
थर थर वह है काँपता, लगा दिसम्बर माह।
गिरती जब भी बर्फ़ है, निकले मन से आह॥

रूप प्रकृति के भिन्न हैं, पर सुंदर अंदाज़।
आते-जाते वे सदा, अद्भुत यह है राज़॥
सुख-दुख की ये सीख दें, कितने इनके रंग।
ख़ुशियाँ दें अनमोल हैं, रहते हम सब संग॥