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कि बेदार होने की ज़रूरत नहीं पड़ती / धर्वेन्द्र सिंह बेदार

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कि बेदार होने की ज़रूरत नहीं पड़ती
इन आंँखों को सोने की ज़रूरत नहीं पड़ती

गुलों को मशक़्क़त से उगाना ही पड़ता है
मगर ख़ार बोने की ज़रूरत नहीं पड़ती

न करता मुहब्बत तू अगर ऐ दिल-ए-नादाँ
तुझे आज रोने की ज़रूरत नहीं पड़ती

बचा लेते गर दामन सियासत के कीचड़ से
तुम्हें दाग़ धोने की ज़रूरत नहीं पड़ती

अगर ये ज़मीं बंजर न होती मुझे इसमें
मेरी राख बोने की ज़रूरत नहीं पड़ती

कि मैं ख़ून से लिखता हूँँ मुझको सियाही में
क़लम को डुबोने की ज़रूरत नहीं पड़ती