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अनाहूत / ज्योतीन्द्र प्रसाद झा 'पंकज'

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एक बार मलयानिल पहुॅंचा
राह भूल बांसों के झुरमुट
चौंक उसी क्षण सूखे पत्ते
मर्मर स्वर में बोल उठे झट।

बंधु दुसह यह पर्स तुम्हारा
भरता उर आकुल सिहरन है
केतकी-कुंज के अतिथि देख लो
हिम सा पुलक गलाता तन है।

क्षुब्ध व्यथित मलयज तब बोला
मेरा तो दम स्वयं घुट रहा
जाने कहाॅं भटक कर आया
वैभव का अवदान लुट रहा।

प्रत्यावर्तन को आकुल हूॅं
कुछ न शेष अब चाह रही है
मैं हूॅं नंदन-वन का पाहुन!
यह तो मेरी राह नहीं है।

आभारी हूॅं तिरस्कार का
जिससे नूतन सीख मिल गई
अनाहूत दिक्-भ्रमित श्रमित को
जीवन की जो भीख मिल गई।