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मानव / ज्योतीन्द्र प्रसाद झा 'पंकज'

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हम मानव हैं जाग्रत जीवित!
हम नहीं पराजय से डरते
बाधाओं में आगे बढ़ते
हमने गिर-गिर उठना सीखा
पीछे हट-हट बढ़ना सीखा
असफलता की ठोकर खा खा
हम हुए सफलता से परिचित।
हम मानव हैं जाग्रत जीवित।

थी साथ हमारे दुर्बलता
जिसमें पलकर हम सबल बने
सहचरी बनी थी निर्ममता
जिसमें ढ़लकर हम तरल बने
रो-रो कर मधुर गीत सीखा
हम मरण होड़ में चिर जीवित
हम मानव हैं जाग्रत जीवित।

उपहास-घृणा के आंचल में
हमको है निर्मल प्यार मिला
अभिलाषा के खंडहर में
आशा का अभिनव कुसुम खिला
है अंधकार ने सिखलाया
हमको करना पथ आलोकित
हम मानव हैं जाग्रत जीवित।

देवत्व नहीं ललचा सकता
हमको न भूख अंबर की है
मिट्टी के लघु पुतले हैं हम
मिट्टी से मोह निरंतर है।
बन गए श्रेय के पंथी हम
कर प्रेय-निशा में युग यापित।
हम मानव हैं जाग्रत जीवित।