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बापू / ज्योतीन्द्र प्रसाद झा 'पंकज'

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भौतिकता की मदिरा पीकर
जबकि विश्व था मतवाला
और चूमने को आतुर था
हिंसा का विष-मय प्याला।

दुसह अनय बेड़ी में जकड़ी
जब धरती सिसक रही थी
मानव की करुणा मानव से
जब भय का सिसक रही थी।

जमी सरलता के पथ पर जब
कुटिल द्वेष की काई थी
न्याय और सच्चाई पर जब
भ्रम की कालिख छाई थी।

तेरे सत्य अहिंसा रवि ने
युग का तिमिर हटाया था
त्याग और संयम का जग को
अभिनव मंत्र सिखाया था।

विहॅंस उठा था जन-जन का उर
नई चेतना जागी थी
बलिदानों की होड़ लगी थी
कायरता खुद भागी थी।

थर्राया प्रभुता का अंचल
दानवता थी हीन हुई
शोषण का उर डोल उठा था
बर्बरता थी क्षीण हुई।

विकसी थी मानस की क्यारी
शुचि विवेक-दल थे निकले
छूकर तेरी ज्योति-किरण को
अगणित भाव प्रसून खिले।

राह बताई तूने जग को
अब है वह गुमराह नहीं
विजयी आत्मा चिर अजेय है
मिलती उसकी थाह नहीं।