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चौक / आलोक धन्वा

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उन स्त्रियों का वैभव मेरे साथ रहा जिन्‍होंने मुझे चौक पार करना सिखाया।

मेरे मोहल्‍ले की थीं वे हर सुबह काम पर जाती थीं मेरा स्‍कूल उनके रास्‍ते में पड़ता था मां मुझे उनके हवाले कर देती थीं छुटटी होने पर मैं उनका इन्‍तजार करता था उन्‍होंने मुझे इन्‍तजार करना सिखाय

कस्‍बे के स्‍कूल में मैंने पहली बार ही दाखिला लिया था कुछ दिनों बाद मैं खुद ही जाने लगा और उसके भी कुछ दिनों बाद कई लड़के मेरे दोस्‍त बन गए तब हम साथ-साथ कई दूसरे रास्‍तों से भी स्‍कूल आने-जाने लगे

लेकिन अब भी उन थोड़े से दिनों के कई दशकों बाद भी जब कभी मैं किसी बड़े शहर के बेतरतीब चौक से गुजरता हूं उन स्त्रियों की याद आती है और मैं अपना दायां हाथ उनकी ओर बढा देता हूं बायें हाथ से स्‍लेट को संभालता हूं जिसे मैं छोड़ आया था बीस वर्षों के आखबारों के पीछ।