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अनागत / नीना सिन्हा

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जब सोचती
इतनी धूप के बाद
कहाँ से राहतें आयीं
आसमान में स्याह बादल और
दिल पर ठंडी छाँव हुई

तुम्हारे बगैर
क्या मौसम भी आश्वस्त करता
कि
सूखे गलियारों में ठंडक सी उतर आयी
मन भींगा या नहीं
आँखों में नमी आयी!

मैं तुम्हारा सामना करने से
बहुत पहले यह सोचती हूँ
हम दोनों ठहर गये
अनागत से पहले ही
कि, सफर में साथ की गुजारिश रही
मंजिलें अनहद की तरह रही

वो महसूस होती
जगह बदल लेती
इक गूँज
इक अनुगूंज सी

लेकिन सफर पर निकली नौकाओं को
किनारों से अधिक
हवाओं ने थामा है!