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मणि / नीना सिन्हा

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थोड़ा-सा चाँद को काट छाँट कर
किसी सुंदर गुलदस्ते में सजा देना
तुम्हारी यह आदत
कितनी भ्रामक है

ऊँचाइयों को खींचकर ज़मीं पर लाना
यह प्रयास फिजूल है
आसमाँ की अपनी आबोहवा रही
जमीं तो ज़रख़ेज़ है
अपने अंदर तमाम संभावनाएँ संग्रहित किये हुए

मैं तुम्हारी विराटता पर मुग्ध होती
मगर
तुम्हारी संकीर्णता
मुझे अपने आभूषण-सा चुभती

जब सम्मान का बीज ही ना पनपे
तो
वैसी फसलों की देखरेख क्या

निर्वाण से मुक्ति रहा
मुक्ति से मोक्ष
यह सापेक्ष रहा

साथ में जल-सी तरलता और निश्छलता हो
ताकि
तस्वीर झिलमिलाती रहे

मन तो 'मणि' की तरह रहा
उससे हर अँधेरा
रौशन होता।