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स्त्री सौन्दर्य / निधि अग्रवाल

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वह साँवली स्त्री कोकिल कंठा थी,
उसकी बरौनियों में पलते थे
अमेज़न के जंगल।

वह भरे शरीर को लय में
साधने में थी निष्णात,
उसके तलवों की थाप से
अनुगुंजित था ब्रह्मांड।

उसकी देह को सजाती थी
चंदा की कलाएँ,
जिन्हें कैनवास पर वह
हू-बू-हू उतार देती थी।
उसके बदन के श्वेत धब्बों में
उसकी कूची ने भर दिए थे
रुपहले इंद्रधनुष।

अपनी बैसाखी को बना क़लम
लिख दिए थे कितने अफ़साने,
उन तमाम ख़ूबसूरत जगहों के
जहाँ वह मन के पाँवो घूमी थी।

हर स्त्री में होता है
सौन्दर्य का निवास,
पर कुछ ही जानती हैं,
उस निवास को
पुरुषों की नज़र में चढ़ाना।

हर स्त्री जानती थी
कोई न कोई हुनर
ख़ूबसूरत होने का,
ख़ूबसूरती को भुनाने का हुनर
कुछ ही सीख पाई थीं।

त्रासदी यह भी नहीं थी,
त्रासदी यह थी कि
अपने सौन्दर्य ,
हर स्त्री
पुरुष द्वारा दिए
सौन्दर्य के प्रमाण पत्र की
प्रतीक्षा में थी।

कोई तो उन्हें बतलाए कि
यह पुरुषों द्वारा दिए प्रमाण पत्र
निरस्त करने का समय है।