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आँख मिचौली / निधि अग्रवाल

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कभी-कभी सच बिल्कुल हमारे सामने बैठा होता ,
और हम उससे वैसे ही आँखें चुराते हैं
जैसे मना करने के बावजूद
मिट्टी खाता बच्चा अपनी माँ से।
फिर चोर आँखों से हम
चुपके से उसकी ओर देखते हैं
और वह तत्काल
हमारी आँखों में आँखें डाल
निर्लज्जता से ठहाका लगाता है।
हम घबरा कर पुनः नज़र फेर,
निहारते हैं सलोने भ्रम को,
वह मनोहारी आश्वसन देता है
सदा साथ निभाने का।
अनेकों बार के आश्वासन के बाद
भ्रम अपना रूप और विश्वसनीयता
दोनों खो देता है।
तब असहाय वेदना से हम
फिर ताकते हैं सत्य को,
इस बार वह उपहास नहीं उड़ाता
अपने आलिंगन में भर,
कंधे पर सिर रख
जी भर रो लेने देता है।