कितना समझा रामायण को,
क्या अपनाया है
‘मरा-मरा’ कहते अधरों पर
‘राम’ न आया है
स्वर्ण-हिरण का
दिखना क्या है
कब इसको हम समझ सके ?
मन की सच्चाई
बतलाते
माँ शबरी के बेर थके
‘रामराज’ को
क्यों लंका का वैभव भाया है ?
हुआ दशहरा
रावण फूँका
पर दिखता बदलाव नहीं
सत्य पाश में
बँधा पड़ा है
हनुमानों में भाव नहीं
सौमित्रों में घर-भेदी का
रूप समाया है
नल-नीलों की
फौज खड़ी है
पुल लेकिन हर बार गिरे
अपनी-अपनी
नैया लेकर
राम नाम से लोग तिरे
मुँह में राम बगल में छूरी
जग की माया है।