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गनोरी पण्डित / इंदुशेखर

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गनोरी पण्डित उस इनसान का नाम है
जिसकी इनसानियत कूड़े के ढेर पर सड़ रही है,
नहीं...
गनोरी पण्डित उस गाड़ी का नाम है
जिसका चक्का एकदम जाम है,
क्षमा करें,
गनोरी पण्डित उस चाक का नाम है
जो जगह की शिकस्ती के कारण
वर्षा में चुप हो जाता है,
नहीं, गनोरी पण्डित उस पीठ का नाम है
जो पके-फोड़े-सी टनकती धूप में भी
इस-विस नहीं करती —
सूरज के कोड़े खुद तार-तार होकर .
नीम अँधेरे की शक्ल में फैल जाते हैं
आस-पास सर्वत्र;
और,
ठीक समय पर क़ीमत चुकता करने पर भी
जो बार-बार धोखा देता है —
उस बल्ब के सामने वह कोई फ़रियाद नहीं करती
गुर्राती हुई धूप को कभी याद नहीं करती ।
गनोरी पण्डित उस खोपड़ी का नाम है जो रोज़
उपलाते बुखार से ऐंठती हुई खटिया पर गिरती है
और नींद को माँ की तरह पुकारती है,
गनोरी पण्डित उस झोंपड़ी का नाम
जो मरणासन्न रोगी के फेफड़े-सी चुपचाप धड़कती रहती है ।

पैंतालीस वर्षों से माटी गूँथ रहा है गनोरी पण्डित
अब वह
उसके हाथों की हथकड़ी,
पाँवों की बेड़ी बन गई है
कि अपने किकियाते
धूल में लोटते बच्चों को वह छू नहीं सकता
क्योंकि काम ही उसकी अधनंगी थाली में
रोटी बनकर उतरता है
उसके सिलबरिया लोटे में
पानी की शक्ल में हाज़िर होता है,
काम ही उसकी फटी हुई
बदबूदार गंजी की बदबू कम कर सकता है,
काम ही,
चकरघिन्नी-सी नाचती उसकी जनाना के बदन पर
फुटपथिया साड़ी की शक्ल में अवतरित होता है;
बूढ़ी, बेवा नाकाम-सी मौसी की राँधी हुई
पानी-पानी खेसारी दाल में
रोटियाँ बोरते वक़्त भी
वह सोचता रहता है
उस आवाँ के बारे में जो आज लगा है,
उस आवाँ के बारे में जो कल लगना है
और... और उस औरत के बारे में
जिसका उसने पकड़ा है हाथ जिनगी भर को,
और जो अभी तक लौटी नहीं है ।

वह कल्पना करता है —
हड़बड़ाती हुई सुकली
जब तक आई होगी टीसन पर
छुक-छुक करती टरेन गुज़र चुकी होगी
और...
अब वह अकेली
बच्चों की चिन्ता से कुहरती-सी
दूसरी टरेन की बाट जोहती हुई
सिसिया रही होगी
इस मघैया पछुआ में ।

लाल-पीले, नक़्क़ाशीदार बरतनों की टोकरी
जब उठाती है सुकली, पीली-पीली साड़ी में
सुन्दर लग उठती है
लेकिन गनोरी पण्डित की आँखें
देखती हैं उसे
करेजे तक धँस जानेवाली निरीहता से भरकर —
वह जानता है कि उसके लौटने तक
भटकता रहेगा वह आशंकाओं के जंगल में
कि कोई बनैला जानवर उसे चीर डालेगा
आपने खूँखार पंजों से
कि कोई थाने का आदमी सवालों में फाँसकर उसको
कहीं तक खींचकर ले जा सकता है ।
अकेली जब होती है वो
कैसी अकेली-सी दिखती है ।
घर से निकलते बखत वो
जिस नज़र से उसको देख उठती है
उस नज़र को
वह इतना साफ़ समझता है
इतनी गहराई तक
कि -
देर तक उसके गले की आवाज़
भभरते हुए सपने-सी काँपती रहती है ।
बच्चे उस रात खाते नहीं
उनको जगाकर उनके सवालों को झेलने की हिम्मत
जुटाते-जुटाते
बच्चों के बारे में सोचना भूल जाता है गनोरी पण्डित ।
इतनी मेहनत से गढ़े-पकाए
बरतनों की आधी क़ीमत भी जब ग्राहक नहीं लगाते,
उसका मुँह फकफका जाता है
मुरझा जाते हैं ओठ ।

खिलौनों-बरतनों के पैसे गिनते हुए
वह उतना ही परेशान रहता है
जितना उनके नहीं बिकने पर ।
लेकिन एक ’टैम’ हर रोज़ ऐसा भी होता है
जब वह ख़ुद को यह समझाने की कोशिश करता है
कि —
परेशान है सारी दुनिया..
सिरिफ़ वही नहीं
कि, सबकुछ के बावजूद वह मुस्कुराना नहीं भूला है
हँसने की आदत भी घिसट ही रही है ज्यों-त्यों,
और,
एक शब्द में कहें तो -
यह सिद्ध करने की कोशिश करता है कि वह मशीन नहीं,
चाक नहीं, बरतन नहीं, खिलौना नहीं
ज़िन्दा इनसान है :
शाम ढलने के बाद
उसके सामने लबनी भर ताड़ी होती है
ताड़ी को सहारा देने के लिए
’पिचकी’ भर चखना होता है,
एक अदद बेचारा-सा ख़ाली गिलास
एक अदद संगी
और एकदम अकेला-सा घर का एक कोना ।
सड़े नाख़ूनोंवाली उँगलियों से उठाता है
वह ताड़ी का गिलास,
तीसरे गिलास के साथ
उठने लगती है यहाँ-वहाँ की बातें,
गनोरी पण्डित के होंठों पर आ जाती है लैला मजनूँ बीड़ी
और उसकी बाई हथेली के घुच्चे में
लटने लगती है बलवान छाप खैनी
और इसके साथ ही
पानी से भींजे मिट्टी जैसे होंठों पर
एक शरणार्थी, लावारिस मुस्कान ।

इस मुस्कान को देखना एक अनुभव है,
न देख पाना दुर्भाग्य ।
इस मुस्कान की राह मत काटिए
इसलिए नहीं कि यह उस आदमी की मुस्कान है
जिसका कोई सपना पूरा नहीं हुआ,
जिसने अपने जवान होते बेटे को
अपने सामने
आहिस्ता, आहिस्ता मरते देखा है,
बल्कि इसलिए कि
यह धीरे-धीरे
उसकी आँखों तक फैलेगी,
पूरे चेहरे को सराबोर कर देगी
यहाँ तक कि उसके बालों तक
उसकी थिरकन महसूस की जा सकेगी,
इसलिए इस मुस्कान की राह मत काटिए,
इसको सहलाइए,
पुचकारिए और देखिए,
ठीक से देखिए और महसूसिए
आपको लगेगा
आप अँधेरे में
किसी ज्वालामुखी से टकरा गए हैं ।